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साम्प्रदायिकता और जातिवाद के सन्दर्भ में स्वामी दयानन्द का दृष्टिकोण-1

स्वामी दयानन्द को सर्वदा इस बात का गर्व रहा कि उनका जन्म आर्यावर्त देश में हुआ। किन्तु सत्यासत्य और मानव कल्याण की दृष्टि से उन्होंने किसी देश विशेष के साथ पक्षपात नहीं किया। स्वामी दयानन्द के अनुसार आर्यो से पूर्व इस देश में कोई मनुष्य बसता नहीं था। प्रथम मानवीय सृष्टि हिमालय की गोदी में हुई। आबादी बढने के बाद वे मैदानी इलाकों में उतरे और वे सरस्वती तथा दृषद्‌वती नदियों से सिंचित प्रदेशों में बस गये। इस देश का नाम "आर्यावर्त" रखा। युगों तक वैदिक धर्म और वैदिक संस्कृति का बोलवाला रहा। महाभारत काल के बाद आर्यो के गौरव और उत्थान का पतन आरम्भ हो गया। क्योंकि महाभारत का समय आर्यों के अत्यन्त अध:पतन का समय बन गया था।

Ved Katha Pravachan - 4 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

महाभारत का युद्ध परस्पर की कलह, द्वेष और दुराग्रह का युग है। श्री कृष्ण जी के सहयोग से भी यह युद्ध टल न सका। तब जो विनाश हुआ है उससे आज तक भारतवर्ष पनप नहीं पाया। वर्णाश्रम धर्म जो एकसूत्रता के लिये थे, विघटन के कारण बने। मन्दिर बने, अवतार बने, पुजारी और महन्त बने, सम्प्रदाय बने, हम पतित और विघटित होते चले गये। विदेशियों के आक्रमणों ने देश को सभी प्रकार से खण्डित कर डाला। पिछले 1000 वर्षों में बाहर से जो आक्रामक आये वे पैगम्बर धर्म लेकर आये। देश में नई समस्यायें उत्पन्न हो गई और आर्यावर्त देश हर बात में पिछड़ गया। सम्प्रदायवाद ने अनैतिकता की नींव डाली और देश के लोग व्यापार में, धर्म-कर्म में और शासन में भी एक दूसरे को छलने और ठगने लग गये। स्वामी दयानन्द पुनर्जागरण युग के, आधुनिक भारतीय इतिहास के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने आर्यावर्त की इस दुर्गति को समझने का प्रयास किया और हमें राष्ट्रीयता का नया आलोक दिया।

नये युग के द्रष्टा - उन्नीसवीं शती के भारत की पूरी परिस्थिति को सामने रखा जाये तो एक ओर हिन्दू समाज की विश़ृंखलता और मूल्यों के क्षेत्र में व्यक्तिनिष्ठा का प्राधान्य था, तो दूसरी ओर इस्लाम कुछ शताब्दियों तक विजेताओं और शासकों का धर्म रहने के कारण अपनी पराभूत अवस्था में भी हिन्दू समाज से अंग्रेजों की विदेशी शक्ति के विरुद्ध मिलने की मानसिकता नहीं रखता था। अंग्रेजों ने आगे इसका लाभ ही नहीं उठाया, वरन्‌ इस अलगाव को गहरे विरोध में परिणत किया। ईसाई-धर्म शासकों के संरक्षण में हिन्दू समाज की कमजोरियों का लाभ उठा रहा था। इस समय हिन्दू समाज निहित स्वार्थ के व्यक्तियों और वर्गों से हर तरह पीड़ित और शोषित था, अन्य धर्मों के सामने असुरक्षित भी। छूत-छात, वर्ण व्यवस्था का अत्यन्त विकृत रूप, मन्दिरों, तीर्थों में पाखण्ड और ठगी, कुरीतियॉं आदि हिन्दू समाज पर व्यापक रूप से छा गए थे। चारों ओर नैतिक मूल्यों की अवहेलना हो रही थी। समाज में मानवीय मूल्यों का आधार समाप्त हो चुका था। ऐसा मूल्य विहीन, विश़ृंखलित और विघटित हिन्दू समाज राजनीतिक तथा आर्थिक स्तर पर विदेशी शासक के सामने टिक नहीं सकता था। फलत: कमजोर होता गया। अंग्रेज हिन्दुओं के पाखण्ड और मुसलमानों की स्वार्थपरता का लाभ उठाकर अपनी शक्ति और प्रभाव को बढाते गये।

स्वामी दयानन्द में भारतीय हिन्दू समाज की जड़ता और विकृतियों की पहचान सहज भाव से उत्पन्न हुई। शिवलिंग पर दौड़ते हुए चूहों से उस बालक मूलशंकर (स्वामी दयानन्द के बचपन का नाम) के मन में जो कुछ घटित हुआ, वह साधारण नहीं था। भारतीय समाज के अन्दर सैकड़ों वर्षों से जमती हुई जड़ता इस प्रकार उस द्रष्टा के मन में कौंध गई। फिर वह उस परिवेश से मुक्त होकर सत्य की खोज के लिए निकल पड़ा। उसके सामने दूसरा विकल्प नहीं था। वर्षों तक उसे सत्य के अनुसन्धान के लिए भटकना पड़ा। नदी-नाले, घाटी-दर्रे, पर्वत-शिखर चारों ओर भटकता रहा, पण्डितों से शास्त्रों का अध्ययन किया, योगियों से उसने योग सीखा। पर उसके सामने एक ही लक्ष्य था, भारतीय हिन्दू समाज को इस अन्धकार से प्रकाश में किस प्रकार लाया जाए। कुरीतियों, कुसंस्कारों, जड़ताओं, अन्धविश्वासों से कैसे मुक्त किया जाए? यह लक्ष्य उनके सामने से कभी ओझल नहीं हुआ।

अन्तत: स्वामी विरजानन्द के पास उसने अध्ययन किया। गुरु-शिष्य ने एक दूसरे को पहचाना, जैसे दोनों को एक दूसरे की तलाश थी। शिष्य शास्त्रों के अध्ययन के बाद गुरु को दक्षिणा देने के लिए प्रस्तुत हुआ। गुरु ने दक्षिणा मांगी-जाओ सत्य का प्रचार करो और अन्धकार दूर कर अपने समाज की सेवा करो। शिष्य निकल पड़ा, उसने जीवन भर गुरु दक्षिणा चुकाई। स्वामी दयानन्द का व्यक्तित्व खण्डन-मण्डन प्रधान जान पड़ता है, क्योंकि ऐसा प्रक्षेपित किया गया है। पर यह सही नहीं है। अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुसंस्कार, स्वार्थपरता के अन्धकार को दूर करने के लिये यह मार्ग अपनाना अनिवार्य था। इसी प्रकार दूसरे धर्मों की जड़ताओं और अन्ध विश्वासों को भी उजागर करना जरूरी था। तभी समाज का स्वस्थ और गतिशील निर्माण सम्भव हो सकता था।

धर्म और सम्प्रदाय की अवधारणा - स्वामी दयानन्द ने "आर्यसमाज" की कल्पना की।  यह उनकी सूक्ष्म दृष्टि का परिणाम है। उन्होंने इसे "आर्य धर्म" नहीं कहा, पारम्परिक हिन्दू समाज से अलग होकर सम्प्रदाय या धर्म के नाम पर "आर्यसमाज" को चलाने की चेष्टा नहीं की। उनका उद्‌देश्य पूरे भारतीय समाज को एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धारावाहिक इकाई के रूप में परिभाषित और संगठित करने का था। साथ ही उनका प्रयत्न था कि यह समाज कुसंस्कारों से, जड़ताओं से, मिथ्या कर्मकाण्डों से मुक्त होकर शुद्ध मानवीय मूल्यों के आधार पर गतिशील हो। यहॉं स्वामीजी "आर्य" शब्द को जाति अथवा धर्मवाचक न मानकर श्रेष्ठतावाची मानते हैं और उनके अनुसार जो भी श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों का आचरण करता है, वह आर्य है। उन्होंने जाति, वर्ण, धर्म के परे ऐसे समाज की कल्पना की जो इन मूल्यों का जीवन बिताने के लिये प्रयत्नशील हो।

उन्होंने यह अनुभव किया होगा कि जब-जब समाज को मूल्योन्मुखी करने का प्रयत्न किसी विशेष संगठन के नाम पर किया जाता है तो आगे चलकर नामधारी धर्म या सम्प्रदाय प्रमुख हो जाता है और मूल्य गौण हो जाते हैं, यहॉं तक कि वे विकृत और भ्रष्ट हो जाते हैं। स्वामी जी ने इसी कारण अपने आन्दोलन को ऐसा नाम नहीं दिया। यही नहीं उन्होंने वैदिक धर्म की व्याख्या की, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा को स्थापित करने का प्रयत्न किया तब नाम देने का आग्रह नहीं किया। अपनी व्याख्या में उन्होंने पूरा प्रयत्न किया कि भारतीय धर्म, दर्शन, अध्यात्म के उन तत्वों को उजागर किया जाये जो व्यक्ति और समाज को ऊँचे मूल्यों के स्तर पर प्रतिष्ठित और विकसित करते हैं और ऐसे अंशों, पक्षों और तत्वों को अवैदिक (अर्थात्‌ जो श्रेष्ठ मूल्य परम्परा में नहीं आते) कहकर खण्डन किया जो मानवीय मूल्यों के विपरीत पड़ते हैं। यह मूल दृष्टि साधारण व्यक्ति की नहीं है, सूक्ष्म दिव्य द्रष्टा की है, जो साधारण अर्थ में सही-गलत, पक्ष-विपक्ष सम्प्रदाय और मत-मतान्तर को स्वीकार नहीं करता वरन्‌ अपने समाज को मानवीय मूल्यों की उच्चस्तरीय भूमिकाओं की ओर प्रेरित करने की दृष्टि से केवल सत्य को ग्रहण करता है।

स्वामी दयानन्द ने वेद और उपनिषदों को स्वीकार किया। उपनिषदों में भी केवल प्राचीन व्याख्या पद्धति अपनाई तथा पुराणों के बृहद साहित्य को प्रमाण की दृष्टि से अस्वीकार कर दिया। धार्मिक और सामाजिक संस्कारों तथा कर्मकाण्डों से एक विशिष्ट वर्ग के रूप में स्वार्थी पुरोहितों को हटा दिया। समाज के द्वारा पूजा पाने वाले और मात्र आशीर्वाद देने वाले साधुओं-संन्यासियों को भी उन्होंने समाज में स्वीकृति नहीं दी, उन पर समाज की सेवा, शिक्षा और उसके उन्नयन का दायित्व रखा अन्यथा अपने गृहस्थ आश्रम के कर्तव्य को निभाने के बाद व्यक्ति को वानप्रस्थ आश्रम में समाज की सेवा और शिक्षा का दायित्व निभाना अपेक्षित है। संन्यास आश्रम में आत्मोन्नयन के साथ व्यक्ति का अपने समाज को उच्चादर्शों की ओर प्रेरित करना कर्तव्य है। इन मान्यताओं के पीछे गहराई से देखने पर स्वामी जी को पूरे भारतीय समाज के इतिहास को समझकर भविष्य को देखने वाली सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त है। पुरोहित गृहस्थ के सामाजिक दायित्व और उच्चदर्शों का पथ  प्रदर्शक नहीं रह गया था, जो उसका दायित्व था। वह निहित-स्वार्थी होकर एक वर्ग बन गया था। इसने सत्ता की प्रतिद्वन्द्विता में कुटिल दांव लगाये। समाज पर प्रभुत्व जमाने के लिए अनेक प्रकार के निरर्थक कर्मकाण्डों को जन्म दिया, नानाविध अन्ध विश्वासों को प्रश्रय दिया। अत: स्वामी जी ने यज्ञ विधान और संस्कार पद्धतियों के लिये सम्मानीय गृहस्थ को, स्त्री या पुरूष को अधिकार प्रदान किया और हर अवसर पर सम्मिलित रूप से कर्तव्यों और मूल्यों के स्मरण करने का विधान किया।

स्वामी दयानन्द ने हिन्दू धर्म (भारतीय धर्म के रूप में) और संस्कृति की सुरक्षा की दृष्टि से तथा उसके वर्चस्व को स्थापित करने के लिये अन्ध विश्वासों, कुसंस्कारों, कुरीतियों, जड़ताओं पर प्रहार किया। साथ ही दूसरे धर्मों की इसी स्तर पर कड़ी आलोचना की, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि धर्म भी कट्‌टर पन्थ, अन्ध विश्वासी और निहित स्वार्थियों के द्वारा नियन्त्रित है। ध्यान देने की बात है कि वे धर्मों में सामंजस्य स्थापित करने के पक्षधर थे। उन्होंने अन्य धर्मावलम्बियों के नेताओं से इस सम्बन्ध में चर्चाएँ भी कीं। उनका दृष्टिकोण था कि अगर विभिन्न सम्प्रदाय मूल मानवीय धर्म को स्वीकार करके चलें तो वे कुसंस्कारों और जड़ताओं से मुक्त होकर मूल्यों पर प्रतिष्ठित रह सकते हैं और आपसी वैमनस्य से मुक्त हो सकते हैं। पर हर धर्म-सम्प्रदाय में निहित स्वार्थी वर्ग इतना प्रबल है कि वह स्वामी जी की दृष्टि को न समझ सकता था और उनके विचारों को मान सकता था। फलत: अनेक सम्प्रदायों के धर्माचार्य स्वामी जी के सुझाव से सहमत न हो सके। स्वामी जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समझने के लिए उनके इस पक्ष को दृष्टि में रखना आवश्यक है। उनके व्यक्तित्व की प्रेरणा के कारण राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रारम्भ से आर्य समाज को मानने वाले तमाम लेाग रहे हैं। उनकी स्वयं की दृष्टि राष्ट्रीय रही है, देश को स्वाधीन करने के बारे में और देश को मूल्यों से स्तर पर उन्नत और संगठित करने के लक्ष्य से भी। स्वामी जी के अनुसार देश में सामाजिक जीवन को संगठित तथा उन्नत मूल्यों पर प्रतिष्ठित करना बहुत आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वाधीनता उसके आधार पर प्राप्त करना न केवल आसान है वरन्‌ उसे सुरक्षित रख देश को विकसित करना भी अधिक सरल है।

राष्ट्रीय एकता और मत-मतान्तर -कतिपय बुद्धिजीवियों का आरोप है कि स्वामी दयानन्द द्वारा नानक पन्थ की आलोचना किए जाने से पंजाब में हिन्दू-सिख एकता में दरार पैदा हुई। इस प्रकार के आरोपकर्ता स्वयं में साम्प्रदायिक सोच के व्यक्ति हैं। क्योंकि स्वामी जी ने नानक पन्थ से कहीं अधिक कड़ी भाषा में विभिन्न हिन्दू सम्प्रदायों की खबर ली है। अत: स्वामी जी की सोच में न तो साम्प्रदायिकता है और न ही एकता को भंग करने की मंशा। वे तो भारतीय और अभारतीय दोनों प्रकार के सम्प्रदायों के अन्धविश्वासों,रूढियों तथा पाखण्डों का खण्डन करके बौद्धिक तर्कयुक्त वैज्ञानिक विचार की प्रतिष्ठा चाहते हैं। कबीर,दरिया,नानक आदि मध्यकालीन सन्तों ने अपने-अपने समय में हिन्दू धर्म के पाखण्डों का तीव्र खण्डन किया है। इस प्रकार के समाज सुधारक सन्तों का अभिप्राय मानव समुदाय को गलत रास्तों से हटाकर प्रशस्त पथ पर चलने की प्रेरणा देना रहा है। स्वामी जी का स्थान मध्यकालीन सन्तों तथा दार्शनिक विचारकों से तनिक भी कम नहीं हैं। अत: उन पर किसी "सम्प्रदाय विशेष" का विरोधी होने का आरोप स्वयं में एक निन्दनीय प्रयास है। इस सन्दर्भ में "कौंसिल आफ साइन्टिफक एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च" के भूतपूर्व महानिदेशक,भारतीय विज्ञान संवर्धन संस्था के अध्यक्ष,देश के गणमान्य वैज्ञानिक स्व. डा. आत्माराम द्वारा स्वामी जी के खण्डन-मण्डन परक व्यक्तित्व तथा कार्य का मूल्यांकर उल्लेखनीय है- "समय की पुकार है कि समाज में बड़ी गहराई तक व्याप्त अन्धविश्वासों को जड़ से उखाड़ फेंका जाए और स्वामी जी का अन्धविश्वास को दूर करने का सन्देश घर-घर पहुंचाया जाए। उनकी एक यही उपलब्धि आइन्सटाइन,गैलीलियो,न्यूटन की उपलब्धियों से किसी भी तरह कम नहीं। इसमें वैज्ञानिक तत्व है जो सार्वभौम है। स्वामीजी को एक धार्मिक पथद्रष्टा व समाज प्रवर्तक ही समझा जाता है। किन्तु उनका दृष्टिकोण और विचारधारा मूलत: वैज्ञानिक तर्कों पर आधारित थी। मेरे विचार से वे पहले व्यक्ति थे,जिन्होंने विज्ञान के आधार पर अन्धविश्वासों पर प्रहार किया और उन्हें दूर करने में बहुत कुछ सफल भी हुए। अन्ध विश्वास का अन्धेरा छांटने के लिए स्वामी जी ने बार-बार उन पर प्रकाश डाला है। उन्होंने सभी धर्मों के पाखण्डों पर पोप-लीलाओं पर जमकर चोट की है। एक सच्चे वैज्ञानिक की तरह स्वामी जी ने अपने पराये का भेद किये बगैर तमाम धार्मिक विश्वासों पर जमी हुई काई हटाने का पूरा प्रयास किया। भले ही किसी विज्ञानशाला में वे पढे न हों,भले ही किसी वैज्ञानिक से दीक्षा न ली हो,भले ही किसी प्रयोगशाला में रिसर्च न की हो,मेरे विचार से स्वामी जी गैलीलियो की अपेक्षा कहीं ऊँचे स्तर के वैज्ञानिक थे। गैलीलियो में वह निर्भीकता नहीं थी,स्वामी जी में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कूट-कूटकर भरा हुआ था।"डॉ. ज्वलन्त कुमार शास्त्री 

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The war of Mahabharata is an era of mutual discord, envy and rivalry. This war could not be averted with the help of Shri Krishna ji. The destruction that has taken place has not been able to flourish till today. Varnashrama Dharma which was for unity, became the cause of dissolution. We became temples, avatars, priests and monks, communities, we became impure and disintegrated. The attacks of foreigners divided the country in all ways. The aggressors who came from outside in the last 1000 years brought the Prophet religion.

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