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मातृशक्ति के सजग प्रहरी स्वामी दयानन्द

स्वामी दयानन्द सरस्वती राजा राममोहन राय से लेकर जवाहरलाल नेहरु तक ऐसे आधुनिक भारतीय नेताओं और समाजसुधारकों से नितान्त भिन्न थे, जो अपनी सद्‌भावनाओं और समाज कल्याण की योजनाओं को क्रियान्वित करते हुए भी भारतीय समाज का आधुनिकीकरण और उत्थान का मार्ग प्रत्येक प्रकार से पश्चिमीकरण से होकर प्रशस्त होता देखते रहे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के समक्ष भारतीय समाज के उत्थान, पुनरुद्धार और प्रगति का उपाय अपनी ही संस्कृति में अन्तर्निहित शक्ति और ऊर्जा का अनुसन्धान था। इसी शक्ति और ऊर्जा के अनुसन्धान के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों, रूढियों और परम्पराओं पर वज्र प्रहार किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती का कुरीतियों पर वज्र प्रहार भारतीय समाज को गौरवान्वित करने के लिए, उसका मोहभंग करने के लिये, उसको बुद्धि और तर्कसंगत तथा वैज्ञानिक चिन्तन प्रदान करने के लिये ही किया गया था।

Ved Katha Pravachan -1 (Explanation of Vedas & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

स्वामी दयानन्द सरस्वती के कार्यकाल में भारतीय जनजीवन में अनेक कुरीतियॉं अपना विषाक्त प्रभाव छोड़ रही थीं। इस विषाक्त प्रभात के उन्मूलन की कहानी ही स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन की कहानी है। इस कहानी का आरम्भ शिव है और अन्त भी एक कण्ठ विषपायी शिव हैजो कि समाज कल्याण के लिए स्वयं विष पीकर औरों के जीवन में अमृत बरसा गया। उन्होंने सच्चे शिव की आदिशक्ति मातृशक्ति के प्रति समाज की उपेक्षा को जघन्य अपराध माना है। स्वामी दयानन्द सरस्वती के कार्यकाल में भारतीय समाज में नारी के प्रति विचित्र और भ्रान्त मान्यतायें प्रचलित थीं। इन मान्यताओं में नारीजाति को समाज में वरेण्य और श्रेष्ठ स्थान प्राप्त नहीं था। बालविवाह और अनमेल विवाह की प्रथा रूढप्राय हो गई थी। इस प्रथा के पीछे चाहे कोई भी कारण होपरन्तु यह निश्चित है कि इस प्रथा ने नर और नारी को अपरिपक्वावस्था में ही कामासक्ति की प्रेरणा देकर भारतीय जनजीवन में मृत्यु की दर में वृद्धि की है और मनुष्य की शतायु को घटाया है।

भारत में अंग्रेजी राज्य स्थापित होने पर उन्नीसवीं शताब्दी में जनजागरण तथा सामाजिक सुधार के जो आन्दोलन चलेउनमें बालविवाह तथा अनमेल विवाह की समस्याओं पर भी समुचित ध्यान दिया गया। इस सन्दर्भ में महर्षि दयानन्द का योगदान अविस्मरणीय है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थप्रकाश के चौथे समुल्लास में लिखा है- ""जिस देश में ब्रह्मचर्यविद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था में और अयोग्यों का विवाह होता हैवह देश दु:ख में डूब जाता है।""

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बालविवाह के सन्दर्भ में पौराणिकों की इस मान्यता को कि "लड़की की आठवें वर्ष में गौरीनवमें वर्ष में रोहिणीदसवें वर्ष में कन्या और उसके आगे रजस्वला संज्ञा होती है। दसवें वर्ष तक विवाह न करके रजस्वला कन्या को माता-पिता और उसका बड़ा भाई ये तीनों देखकर नरक में गिरते हैं" का खण्डन बड़े प्रभावशाली ढंग से किया है। विवाह के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्द सरस्वती की मान्यता वैज्ञानिक एवं तर्कसंगत है। स्वामी दयानन्द सरस्वती से जब विवाह की आयु के विषय में प्रश्न किया गया तो उन्होंने कहा- "सोलहवें वर्ष से लेकर चौबीसवें वर्ष तक लड़की और पच्चीसवें वर्ष से लेकर अड़तालीसवें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय उत्तम है।" अपने इन्हीं विचारों को ऋग्वेद के मन्त्रों पर भाष्य लिखते हुए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसे इस प्रकार प्रकट किया है- "विद्याओं में प्रवृत्ति करते हुए कुमार और कुमारियों की रक्षा कर विद्या और अच्छी शिक्षा उनको दिलवानी चाहिए। बालकपन में अर्थात्‌ पच्चीस वर्ष के भीतर पुरुष और सोलह वर्ष के भीतर स्त्री के विवाह को रोके। इसके उपरान्त अड़तालीस वर्ष के भीतर पुरुष और चौबीस वर्ष पर्यन्त स्त्री का स्वयंवर विवाह कराकर सबसे आत्मा और शरीर के बल को पूर्ण करना चाहिए।"

उन्नीसवीं शताब्दी के सामाजिक पुनरुत्थान के चिन्तकों एवं समाजसुधारकों ने यह अनुभव किया कि बालविवाह के कारण समाज में विधवाओं की संख्या बहुत अधिक है। अल्पायु में विधवा बनी अबोध बालिकाओं को समाज त्याज्य एवं बहिष्कृत मानता है। परिवार उन्हें असह्य कष्ट देता है। इस प्रकार के घुटन और तपनभरे वातावरण से मुक्ति पाने के लिए वे असामाजिक तत्त्वों के हाथ में पड़ जाती हैं और वेश्या जीवन व्यतीत करने के लिए बाधित हो जाती हैं। इस नारकीय जीवन से छुटकारा दिलाने के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विधवा विवाह का नाद निनादित किया। इस नाद से भारतीय संस्कृति के झूठे ठेकेदारों और अवैज्ञानिक चिन्तकों में खलबली मच गई। क्योंकि उनकी दृष्टि मेंे विधवा-विवाह का श्रीगणेश होने पर पौराणिक मान्यताओंअन्ध-विश्वासों और रूढियों की इतिश्री हो जायेगी। अत: इस सामाजिक सुधार का प्रतिरोध होना निश्चित था।

स्वामी दयानन्द के काल में दो प्रकार की विधवायें थी। प्रथम प्रकार में वे विधवायें आती थींजिनके पति की मृत्यु बाल्यावस्था में हो जाती थी और जो युवती होने से पहले ही विधवा जीवन की शिकार बन जाती थीं। दूसरे प्रकार की विधवायें वे थीं जो पति से सहवास कर चुकी थींऔर युवती होने के उपरान्त विधवा होती थीं। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने बाल-विधवाओं के पुनर्विवाह की स्वीकृति प्रदान करके भारतीय समाज को यथाशक्ति चारित्रिक पतन से बचाने के प्रयास के साथ-साथ नारी को सम्मानित जीवन जीने के लिए एक क्षेत्र तैयार किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थप्रकाश के चौथे समुल्लास में लिखते हैं- "जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहण मात्र संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ होअर्थात्‌ अक्षत योनि स्त्री अक्षत वीर्य पुरुष हों उनका अन्य स्त्री वा पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए।" इस स्वीकृति के पीछे भ्रष्टाचार को समाप्त करना था। स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय में विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता था। पुनर्विवाह के न होने के दुष्परिणामों को उन्होंने एक व्याख्यान में इस प्रकार प्रकट किया है-     

"आजकल के आर्यों में जो-जो भ्रष्टचार फैला हुआ हैवह आप लोग देख ही रहे हैं। हजारों गर्भ गिराये जाते हैंखूब हत्यायें होती हैं। एक गर्भ गिराने से एक ब्रह्महत्या का पाप होता है। सोचो कि इस देश में कितनी ब्रह्महत्यायें प्रतिदिन होती हैं। क्या कोई उनकी गणना कर सकता हैइन सब पापों का बोझ हमारे सिर पर है। देवालयोंमठों और मन्दिरों में पाप की भरमार हो रही है। न जाने कितने गर्भ गिराये जाते होंगे।"

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यकाल तक यह अन्धविश्वास पूर्णत: जड़ पकड़ चुका था कि स्त्रियों को शिक्षा देना असामाजिक है और पारिवारिक मर्यादाओं के अनुकूल नहीं है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भारतीय समाज में फैले इस अन्धविश्वास को तर्कसंगत प्रमाणों से झकझोरना आरम्भ किया। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि- "सब वर्णों के स्त्री-पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए।" क्या स्त्री और शूद्र भी वेद पढेंजब यह प्रश्न स्वामी दयानन्द सरस्वती से किया गया तो उसका उत्तर सत्यार्थप्रकाश में देते हुए उन्होंने लिखा- "सब स्त्री और पुरुष अर्थात्‌ मनुष्यमात्र को पढने का अधिकार है।" इसके प्रमाण में यजुर्वेद का प्रमाण देते हैं और लिखते हैं कि देखो परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्र और अपने भृत्य वा स्त्री आदि और अतिशूद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है। अर्थात्‌ सब मनुष्य वेदों को पढ-पढा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढाके अच्छी बातों का ग्रहण और बुरी बातों का त्याग करके दु:खों से छूटकर आनन्द को प्राप्त हों।" अपने मन्तव्य की पृष्टि में वे सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं- "भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषणरूप गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढके पूर्ण विदुषी हुई थी। भला जो पुरुष विद्वान्‌ और स्त्री अविदुषी और स्त्री विदुषी और पुरुष अविद्वान्‌ हो तो नित्य प्रति देवासुर संग्राम घर में मचा रहेफिर सुख कहॉंइसलिये जो स्त्री न पढे तो कन्याओं की पाठशाला में अध्यापिका क्योंकर हो सकेतथा राजकीयन्यायाधीशत्व आदिग्रहाश्रम का कार्य जो पति का स्त्री को और स्त्री का पति को प्रसन्न रखनाघर के सब काम स्त्री के अधीन रहना इत्यादि काम बिना विद्या के अच्छे प्रकार कभी नहीं हो सकते ।"

स्वामी दयानन्द सरस्वती की यह प्रबल कामना थी कि मातृशक्ति का सुधार हो। उनमें धर्म-प्रचार हो और शिक्षा का प्रसार हो। इसलिये उन्होंने अपने से पूर्व आचार्यों के स्त्रियों के प्रति कहे गये अनादरसूचक और अपमानजनक वाक्यों का सप्रमाण खण्डन किया। उन्होंने इनके लिये समान अधिकारों की घोषणा की। अत: वर्तमान सन्दर्भ में नारी जागरण की दिशा में आर्यसमाज की नितान्त प्राथमिकता बनी रहेगी। डा. सुमन मंजरी (आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा, शताब्दी स्मारिका, मई 1987)

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In the nineteenth century, after the establishment of the English state in India, the movement for public awakening and social reform was given due attention to the problems of child marriage and unmarried marriage. Maharishi Dayanand's contribution in this context is unforgettable. Swami Dayanand Saraswati has written in Satyarthraprakash's fourth samusala- "" The country in which celibacy, scholarly childless and marriage of unqualified people is drowned in sorrow.

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