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दुष्प्रवृत्तियों को छोड़

परेणैतु पथा वृकः परमेणोत तस्करः।
परेण दत्वती रज्जुः परेणाघायुरर्षतु॥ (अथर्ववेद 4.3.2)

शब्दार्थ - (वृक:) ऐसे भेड़िए ! (पथाः परेण एतु) मेरे रास्ते से दूर हो जा (उत तस्करः ) और रे चोर! तू भी (परं इण) दूर हट जा (परेण दत्वती रज्जुः) ऐ सर्प! तू मुझसे दूर रहना (परेण आघायुः अर्षतु) तू क्यों अपना नाश करवाना चाहता है? 

विनय - प्रिय पाठकों! यदि शब्दार्थ पर ही आप दृष्टिपात करेंगे तो वेद को न समझेंगे। वेद को वेद की भाषा में समझना समुचित होगा। हमें भेड़िए की प्रवृत्ति को दूर करना है। भेड़िए को नहीं, हमें चोर की प्रवृत्ति को अपने से दूर करना है चोर को नहीं, हमें सर्प की विषैली प्रवृत्ति से दूर रहना है सर्प तो स्वयं दूर भागता है। आइए! इन प्राणियों की प्रवृत्तियों पर किंचित् विचार तो करें।1. भेड़िया अप्रचलित मार्ग से दूसरों की निगाहों से बचता हुआ अपनी स्वार्थसिद्धि के स्थान पर पहुँचता है। उसका लक्ष्य कलुषित है, हिंसा की भावना है, येन-केन-प्रकारेण सिद्ध का लक्ष्य है, गन्तव्य-पथ जनशून्य है, अपनी रक्षा के प्रति पूर्ण सचेत है और बड़ी सावधानी से अचानक अपने शिकार पर टूट पड़ता है और शिकार को ले भागता है, अंधेरा उसका मित्र हो जाता है। 

Ved Katha Pravachan - 18 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

मनुष्यों में भी इस प्रवृत्ति के नरपिचाश कम न मिलेंगे जो अपने उदर-पोषण के लिए, अपने सुख-साधनों के लिए, दूसरों के सुखों पर भेड़िए की तरह टूर पड़ते हैं। असमर्थ व्यक्ति लोभ-लालच के वशीभूत होकर इस प्रवृत्ति में सहायक भले हो जाए किन्तु स्वतन्त्र रूप से इस प्रवृत्ति को निभा नहीं सकता। अतः इस प्रवृत्ति को शक्ति की दृष्टि से तथा अर्थ की दृष्टि से सम्पन्न लोग ही अपनाया करते हैं। वास्तविकता को छिपाने और पुनः धर्मध्वजी कहलाने की कला में इस प्रवृत्ति के लोग बड़े ही दक्ष होते हैं।  नरपिशाच- 

बनाकर शीशमहल नादान लगाता आग कुटीरों पर॥
जिएगी मानवता अब हाय कहो कैसे शमशीरों पर॥ 1॥ 

प्रायः शासक भेड़िए की प्रवृत्ति वाले ही होते हैं। ये द्विपद पशु, समाज की अप्रबुद्धता का अधिकतम लाभा उठाना, परस्पर समाज में घृणा और विघटन उत्पन्न कराना और कलहद्रष्टा बन जाता, पुनः न्यायकर्त्ता बनकर समाज को बहका देना, खूब जानते हैं। ऐसे छद्मवेशधारी, लम्पट नर-पशुओं को पहचानना एवं उनके लिए प्रबल दण्ड का उपाय करना अत्यन्त आवश्यक है। सज्जनों, वेद, ने पुनः शिक्षा दी- 

परमेणोत तस्करः 

सत्य को छिपाना मन का निन्दनीय दोष है। मन का पाप, वाणी और शरीर को भी दण्डभोक्ता बना देता है- 

कश्मीर के महाराजा गुलाबसिंह बड़े ही न्यायप्रिय शासक थे। एक बार भ्रमण के लिए निकले, मार्ग में एक मकान पर खड़ी हुई किसी सौन्दर्यरूपा कन्या पर दृष्टि पड़ गई। मन में पाप-विचार आया तथापि अन्तरात्मा ने धिक्कारा- रे मूर्ख! यह तेरी प्रजा की कन्या है, तू राजा है, पितातुल्य है। यह मन का पाप भी तेरे लिए प्रायश्‍चित करने योग्य है, तूने ऐसा क्यों सोचा? राजा गुलाबसिंह महल पर लौटे, पुरोहित को बुलवाया और सारी बात बताकर प्रायश्‍चित का विधान पूछा। पुरोहित ने कहा- राजन्! इस दोष पर तो राजा को धधकती चिता में जलकर मर जाना चाहिए। राजा ने घोषणा करवा दी, यह बात सारी प्रजा में फैल गई, स्थान निश्‍चित था, समय निश्‍चित था। सारी प्रजा पुरोहित को कसाई समझने लगी। अपने निश्‍चित स्थान एवं समय पर लाखों की भीड़ के समक्ष न्यायकारी राजा अपने प्रायश्‍चित पर अटल था। पुरोहित ने कहा- राजन्, जब मैं निवेदन करूँ तब आप इस धधकती चिता में कूद जाइएगा। प्राण सभी को प्रिय होते हैं, किन्तु धन्य हैं वे लोग जिन्हें धर्म प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है। राजा जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहा था, मन में बैचेनी थी। जब पुरोहित ने तैयार हो जाने को कहा तो राजा को पसीना आ गया। पुरोहित ने चिता में कूदने का आदेश दिया, धर्मात्मा राजा आगे बढ़ा, चिता निकट आई, राजा ने दौड़कर चिता में कूदना चाहा कि पुरोहित और मंत्री ने राजा को पीछे से जकड़ लिय। आश्‍चर्य से पूर्ण राजा ने पूछा- ब्रह्मण! आपने यह क्या किया? मुझे धर्मपालन से क्यों हटा दिया? पुरोहित बोला- राजन्! दोषी तो आपका मन ही था, शरीर तो दोषी नहीं था। मन को अपने किए पाप का फल मिल गया। सच कहिए, जब मैंने चिता में कूदने का आदेश दिया था तब आपके मन की क्या स्थिति थी? राजन्! आपका प्रायश्‍चित पूरा हो गया। पुरोहित को कसाई कहने वाली प्रजा पुरोहित एवं राजा की जय-जयकार कर उठी। सज्जनों! जरा अपने वर्तमान नेताओं पर भी दृष्टि डालिए, घृणा से मन भर उठता है; शायद नेता शब्द से बढ़कर कोई गाली न होगी, ऐसा मेरा विचार है। प्रभु जाने इन गिद्ध वंशजों से प्रजा को कब त्राण मिलेगा! पुनः वेद ने कहा- परेण दत्वती रज्जुः- ऐ सर्प प्रवृत्ति! मुझसे दूर हो जा। साँप को अंधेरा बड़ा प्रिय होता है, विषैलापन दूसरा गुण है, क्रोध तीसरा गुण है और टेढ़ी चाल चौथा दुर्गुण।

जिन्हें अज्ञान का अंधेरा ही प्रिय है, उन्हें किसी का सदुपदेश यदि कटु प्रतीत हो तो आश्‍चर्य ही क्या? स्वयं सोच नहीं सकते, दूसरे के बहकावे में मारे फिरते हैं- ऐसी बिना रस्सी और खूँटे के बँधे हुई बुद्धियों वाले पशु हैं, प्रभु ही उनका कल्याण करे तो कुछ बात बने। 

जीवन को निष्क्रिय बनाकर सर्प की तरह आलसी बन अंधेरे में पड़े रहना, दूसरों से छोटी-छोटी बातों में भयभीत रहना उन्नति का लक्षण नहीं है- 

डरो मत अरे अमृत संतान, अग्रसर है मंगलमय वृद्धि।
पूर्ण आकर्षण जीवन-केंद्र, खिंची आवेगी सकल समृद्धि॥2॥
 

अपने लक्ष्य के लिए धैर्यपूर्वक भरपूर प्रयत्न न करोगे तो क्या पाओगे, मेरे बन्धु? घबराओ मत- 

वह पथ क्या पथिक, कुशलता क्या, जिस राह में बिखरे शूल न हों।
नाविक की धैय-परीक्षा क्या, यदि धारा ही प्रतिकूल न हो॥3॥  

मेरे बन्धु! ब्रह्मवेला में उषा ने अपने चरण बढ़ाए हैं, इन्हें अपने कर्तव्य-जल से पखार लो। 

यह नीड़ मनोहर कृतियों का, यह विश्‍व कर्म-रंगस्थल है।
हे परम्परा लग रही यहाँ, ठहरा जिसमें जितना बल है ॥4॥ 

सज्जनों विषैलापन साँप का दूसरा गुण है, यह हममें नहीं होना चाहिए। साँप की आँखें जहरीली, दाँत जहरीले, साँस जहरीली, कण्ठ जहरीला- तभी तो वह विषधर है। लेकिन मेरे बन्धु! हृदय की बात कहूँ तो कोई सर्प भी दुर्जन से अधिक जहरीला नहीं हो सकता। 

मनुष्य की शोभा तो तब है जब उसके मन, वाणी और कार्य सभी अमृतत्व से परिपूर्ण हों। सर्प की शोभा अधिक से अधिक दुस्तेजस्वी और विषैला होने में है, किन्तु मनुष्य की नहीं। किसी फनवाले काले नाग को क्रोध के समय साँस भरते देखिए, फूलकर ड्योढ़ा हो जाता है, साँस छोड़ता है तो दिल दहल उठता है। यही क्रोध मनुष्य में विवेक का नाश करता है, बड़े से बड़े अनर्थ करवा देता है। 

प्रिय पाठक ! सर्प का तीसरा गुण उसकी टेढ़ी चाल है। सीधा होते हुए भी टेढ़ी चाल चलता है। कुछ इसी प्रकार के सरल और भोलेभाले दिखाई देने वाले कपटी हृदय के लोग, प्रायः अनुमान से परे कुटिल व्यवहार किया करते हैं। यह कुटिलता विचारों, वचनों तथा व्यवहारों में भी कभी-कभी अभिव्यक्त हुआ करती है, हमें इन दोषों से सदैव दूर रहना चाहिए। - पं. सन्तोष कुमार वेदालंकार

 

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Even in humans, this trend will not be reduced to those who travel like wolves for their own well-being, for their well-being, for their pleasures. The incapable person may be helpful in this tendency by being subjected to greed and greed, but cannot independently play this tendency. Therefore, this trend is adopted only by people who are full of power and meaning. People of this tendency are very proficient in the art of hiding reality and again called Dharmadhvaji.

 

 

 

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