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तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा

ईशोपनिषद् के ईशावास्यमिदं सर्वम् स मन्त्र का यह वाक्य है। इस मन्त्र के यह वाक्य है। इसमें हमें तीन उपदेश दिए हैं। 1. ईश्‍वर की सर्वव्यापकता को स्वीकार करना 2. त्यागपूर्वक सांसारिक पदार्थों को भोगना 3. लालच न करना। ईश्‍वर के मानने वाले ईश्‍वर को सर्वव्यापक तो मान लेते हैं, परन्तु उसके अन्तिम दोनों उपदेशों के आचरण की सर्वथा उपेक्षा कर रहे हैं, अतः हम इन्हीं पर विस्तार विचार करेंगे। 

Ved Katha Pravachan - 13 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

त्याग किसे कहते हैं। इसका सही अर्थ समझने में बहुत से भाई भूल करते हैं। किसी ने गृहस्थी को बता दिया- सब तज हरि भज तो मेरे उस भाई ने गृहस्थ ही छोड़ दिया। राम नाम जपना और साधुओं में रहना आरम्भ कर दिया। बहुत दिन हो गए पर भगवान के दर्शन न हुए। फिर जीवन में निराशा, उदासचित्त और निष्क्रियता का वातावरण बन गया। किसी ज्ञानी ने पूछ लिया- क्यों, क्या बात है? 

त्यागी भक्त- बहुत समय हुआ कि मैंने स्त्री-पुत्र धन यहाँ तक कि घर भी छोड़ दिया, किन्तु भगवान के दर्शन फिर भी नहीं हुए। 
ज्ञानी- छोड़ी जाने वाली स्त्री-पुत्र-धन आदि का कुल कितना मूल्य होगा? 
त्यागी- इससे आपका मतलब? 

ज्ञानी - यही कि भगवान से शिकायत तो की जाएगी कि इन्होंने इतने मूल्य की चीजें छोड़ी हैं, घर तक छोड़ दिया और तुम अभी तक छिपे हो? निकलो बाहर। ओ मेरे भाई ! स्त्री-पुत्रादि के बदले में भगवान के दर्शन! भगवान से भी सौदेबाजी घर छोड़ देने से तुम्हारे आश्रितों को कितना कष्ट हुआ होगा, क्या कभी तुमने यह सोचा? यह ईश्‍वर भक्ति तो नहीं, पाप है। सब तज हरि भज का यह अर्थ है कि जीवन की समस्त बुराइयों को त्याग कर प्रभु के बताए वेद मार्ग पर चलो। दुखियों का दर्द मिटाओ, भूलों को मार्ग बताओ, मन-वचन-कर्म से परोपकार करो। यही भगवान की भक्ति है, सेवा है (भज सेवायाम्) 

गृहस्थी के ज्ञान-चक्षु खुल गए। हाय! इतना समय व्यर्थ ही नष्ट किया। वह सीधा घर पहुँचा। पत्नी से क्षमा माँगी। बालकों को प्यार किया और उन्हें धैर्य दिलाया। नरक रूपी घर स्वर्ग बन गया। इस प्रकार वेदविद्या से विहीन लाखों मिथ्याज्ञानी अकर्मण्य लोगों ने गृहस्थियों को कुपथ में डाल दिया है। अतः त्याग का अर्थ समझना पड़ेगा। तन्त्र का ऋषि कहता है कि हे मनुष्यों! तुम त्यागपूर्वक भोगों को भोगो। आवश्यकता से अधिक संग्रह मत करो। जो तुमने भोग लिया उसे दूसरों के लिए छोड़ दो। यदि ऐसा न करोगे, स्वयं ही भोगते रहोगे तो एक दिन तुम भोगों सहित नष्ट हो जाओगे। मजे की बात तो यह कि अन्त में तुमको त्यागना भी पड़ेगा। मृत्यु तुमसे सबकुछ छुड़ा देगी। भोगों को उचित समय पर त्यागे बिना जीवन चलेगा ही नहीं। यदि मुँह पेट के लिए भोजन न त्यागे और पेट सारे शरीर के लिए न त्यागे तो निश्‍चय ही शरीर सहित वे स्वयं भी नष्ट हो जाएँगे। संसार में कोई एकाकी रहकर सुखी जीवन बिता नहीं सकता। दूसरों के लिए में कुछ करना पड़ेगा कुछ देना पड़ेगा, क्योंकि हमें भी तो कहीं से कुछ मिला ही है। अन्यथा हम कहाँ से ले आएँ? एक के आश्रय दूसरा जीवित है। जीवन रूपी श्रृंखला की मानव एक कड़ी है। बीच से एक कड़ी टूट जाने से श्रृंखला का स्वरूप ही नहीं रहता। इसे यूँ समझिए कि करोड़ के सामने एक नगण्य है। परन्तु करोड़ के आपे में कोई स्वतन्त्र मूल्य नहीं है। बहुत से एक मिलकर ही करोड़ बने हैं। जब एक नहीं तो करोड़ भी नहीं। सभी का अपना मूल्य है। अतः फिर तेन त्यक्तेन का अर्थ यह हो गया कि तुम एक-दूसरे के लिए जियो, न कि स्वयं के लिए। LIVE AND LET LIVE अर्थात जियो और जीने दो की भावना यहीं से प्रस्फुटित होती है, इसीलिए हम नित्य सर्वे भवन्तु सुखिनः का पाठ पढ़ते हैं। पर केवल पाठ पढ़ने से समस्या का समाधान नहीं होगा। दूसरों को सुखी बनाने के लिए तो त्याग का उपदेश वेद दे रहा है। देखना चाहिए कि हमारा त्याग फलित भी हो रहा है या नहीं। UNIVERSAL BROTHER HOOD  विश्‍वव्यापी भ्रातृत्व को जगाए बिना त्याग कभी फलित नहीं हो सकता। महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने मानवों को सुखी बनाने में तीन बाधाओं को खोज निकाला। IGNORANCE =  अज्ञान,  INJUSTICE = अन्याय  POVERTY = अभाव। इन तीनों को हटाने के लिए क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य समाज का निर्माण किया गया। जब ये तीनों वर्ग अपना दायित्व समझकर कर्तव्य पालन करते हैं  तो मानव समाज का सर्वतोमुखी विकास आरम्भ होने लगता है। इसमें परिग्रह की भावना लुप्तप्रायः हो जाती है। उस दशा में भोग-कर्तव्य भावना से भोगे जाते हैं। व्यक्ति का उसमें लगाव नहीं रहता। जिस वस्तु में हम अपनापन जोड़ लेते हैं, उसमें मोह का होना स्वाभाविक की है। मोह के कारण उसे त्यागने में बहुत कष्ट होता है। यही बात श्री तुलसीदासजी ने रामायण में बता दी। मोह सकल व्याधिन कर मूला। तिंहिते उपजत हैं बहु शूला-  मोह से छुटकारा त्याग भावना से ही सम्भव है। इसीलिए मन्त्र कहता है, भोगों में फँसो मत, भोगो अवश्य। फिर इन्हें त्यागते हुए आगे बढ़ो। ज्ञानी लोग भोगों को चखकर तुरन्त त्याग देते हैं, अति की ओर नहीं जाते। अन्यथा फिर भोगी से रोगी वाली बात घट जाएगी। 

इसके अतिरिक्त कुछ भाई त्याग का विरुद्धार्थ और भी लगाते हैं। मुझे एक समाज ने पुरोहित सेवा के लिए बुलाया। पुरोहित विद्वान भले ही न हो, साधारण हो। मगर उसमें निम्नलिखित गुण अवश्य हों। फिर तो वह अधिकारियों की इच्छानुसार सारा जीवन वहाँ काट सकता है। 

1. वह बाहर से चन्दा इकट्ठा करके आया करे।
2. वह संस्कारों में दक्षिणा अपने लिए कम और समाज मंदिर को दान अधिक लाया करे। 
3. उसमें अधिकारियों के समक्ष उनकी अमान्य बातों के समर्थन करने का गुण हो। 
4. यदि समाज में सेवक न हो तो उसकी जगह भी सेवा कर सके। 
5. वह मिथ्या प्रशंसा और चाटुकारिता में पूर्ण कुशल हो। 

अर्थात- पीर बबर्ची भिश्ती खर। ऐसा न हो तो यहाँ से टर। 

मैं समाज मन्दिर के सत्संग में पहुँचा। कार्यक्रम की समाप्ति पर मंत्रीजी से इस प्रकार वार्तालाप हुआ- आपके पास अपने प्रमाण पत्र भी हैं? संस्कार कराने के अतिरिक्त क्या आप भजन भी सुना देते हैं? इत्यादि। 

सब प्रश्‍नों का उत्तर मैंने समुचित रूप से दे दिया। पुनः मुख्य प्रश्‍न का नम्बर आया। 

आप वेतन क्या ले सकेेंगे? मन्त्रीजी ने पूछा। 

मैं- वेतन अधिकतम और दक्षिणा न्यूनतम। मन्त्री जी- मैं नहीं समझा, ये दो प्रकार के उत्तर कैसे? मैं-वेतन का सम्बन्ध नौकरी से जुड़ा हुआ है और दक्षिणा का पुरोहित से। अर्थात दक्षिणा को यदि आप वेतन समझकर देंगे तो पुरोहित को नौकर की भावना से देखेंगे और यदि दक्षिणा समझकर देंगे तो उसे आचार्य पद पर सम्मान की दृष्टि से देखेंगे। अतः वेदन तो अधिक से अधिक तय कीजिए और दक्षिणा कम से कम। मंत्रीजी- अच्छा, न्यूनतम कितनी? 

मैं- इतनी, कि जिससे मेरे परिवार की जीविका सुचारू रूप से न चल सके। बच्चे उच्च शिक्षा लेकर श्रेेष्ठ नागरिक न बन सकें। रोगी होने पर चिकित्सा न करा सकें और न संकटकाल के लिए कुछ बचा सकें। यह मैंने व्यंग्य में कह दिया। इस पर मन्त्रीजी बोले- जी नहीं, ऐसा तो हम नहीं चाहते, किन्तु फिर भी आप बताइए। मैंने बड़े संकोच से उत्तर दिया- पाँच सौ रुपए मासिक दक्षिणा। मन्त्रीजी ये तो अधिक है। ब्राह्मण को तो त्यागी होना चाहिए। अब आगे क्या हुआ यह लो मैं यहीं पर समाप्त करता हूँ। यहाँ इस प्रसंग में केवल उनके त्याग शब्द पर विचार कीजिए? मैं नशा करना त्याग सकता हूँ, अभक्ष्य पदार्थों को त्याग सकता हूँ, एक समय का भोजन त्याग सकता हूँ। स्वांग, सिनेमा आदि देखना त्याग सकता हूँ। ईर्ष्या, द्वेष, कपट, मिथ्या  व्यवहार, निन्दा, क्रोधादि आत्मिक रोगों को भी यथासम्भव त्याग सकता हूँ। इसमें भी मैंने जिनको पकड़ा नहीं है उनके त्यागने का प्रश्‍न ही नहीं उठता। लेकिन मैं भोजन, वस्त्र, शिक्षा का उचित प्रयोग करना तो कभी त्याग नहीं कर सकता। त्याग की भी एक सीमा है। दुनिया के लोग अपने आराम का 1/2 भाग को भी त्यागने को तैयार नहीं। परन्तु ब्राह्मण को त्यागी होने का केवल इतना अभिप्राय है कि वह आवश्यकता से अधिक संग्रह की भावना को त्याग दे, अनुचित लोभ में न फँसे और अधर्म से प्राप्त अन्न आदि पदार्थों को ग्रहण न करे। ऐसा करने से उसका तेज घटता है। तेजस्वी लोग ब्राह्मण हों या अन्य, कोई कभी पापार्जित, द्रव्यों का उपयोग नहीं करते। श्रीकृष्णजी ने पापी दुर्योधन के अनके सुस्वादु भोजनों को त्याग कर श्रद्धालु विनम्र विदुरजी के घर विशेष विदुरजी के घर विशेष आतिथ्य स्वीकार किया था। यह बात लोक प्रसिद्ध है। 

मन्त्र का अन्तिम भाग है - मागृधः कस्यस्विद्धनम् 

लालच मत करो। यह धन किसका है। इसे प्राप्त करने के लिए गिद्ध मत बनो। 

जैसे गिद्ध दूसरों का मांस खाने के लिए प्रतिक्षण ललचाई दृष्टि से तैयार रहता है, वैसे ही लालची व्यक्ति जो पराई सम्पत्ति पर कुदृष्टि रखते हैं, वे भी गिद्ध की-सी प्रवृत्ति के हैं। लोभवश वे अन्यों के जीवन की हानि कर देते हैं। इस कारण मन्त्र में सर्वनाश के हेतु लोभ से बचने के लिए निर्देश किया है। यह धन आदि सबकुछ परमात्मा का है। जो हमें सदुपभोग के लिए मिला है कि समाज में कोई भूखा न मरे, मिल-बाँटकर खाएँ। लेकिन इसका उल्टा व्यवहार हो रहा है। दुकानदार, व्यापारी कहते हैं कि धन तो हमारा है। मजदूर कहते हैं हमारा है। हम श्रम न करें तो तुम्हारे माल का उत्पादन करोड़ों की बिक्री का लाभ तुम्हें कैसे मिल सकेगा? सरकार कहती है सारा धन सरकार का है। नोट तो हम ही छापते हैं। वर्ना तुम्हें कहाँ से मिलते? कागज मिल के स्वामी कह रहे हैं- हम कागज न बनाएँ सरकार नोट कैसे छाप लेगी? अतः धन हमारा है। कागज बनता पुराने कपड़े टाट आदि से। मजदूर इकट्ठा करके बेच देते हैं, कुछ गृहस्थियों के यहाँ से मिल जाता है। अतः वे कहते हैं धन हमारा है वस्त्र आदि बनते हैं सूत से, जूट, पटसन आदि से जिन्हें किसान पैदा करते हैं। तब वे कहते हैं कि धन हमारा है। वस्त्र आदि बनते हैं सूत से, जूट, पटसन आदि से जिन्हें किसान पैदा करते हैं। तब वे कहते हैं कि हम इन्हें पैदा न करें तो वस्त्रादि कैसे बनेंगे? यह तो धन हमारा है। इस पर परमात्मा ने कहा- क्यों झगड़ते हो व्यर्थ में। यह रुई, कपास, सोना, चाँदी, ताँबा आदि की खानें व फसलें तो मैं ही उत्पन्न करता हूँ। जिनसे सिक्के बनते हैं। इसीलिए समझो कि यह सारी दुनिया की सम्पत्ति मेरी है तुमको शरीर भी मैंने ही दिया है। सारी वसुधा का स्वामी मैं हूँ। यदि इन दिए हुए पदार्थों का सदुपयोग न करोगे तो सारा मानव समाज दुःख सागर में डूब जाएगा। 

सुनो मेरे भाई, बात घूम-फिरकर वहीं समाप्त हुई कि यह धन परमात्मा का है। धनकुबरों! ध्यान दीजिए इस वेद सन्देश पर। अब न कहना अभिमान से कि यह धन हमारा है। स्वयं सुखी रहने के लिए आवश्यक है कि दूसरों के सुखों का भी ध्यान रखा जाए। इस मन्त्र में सच्चे समाजवाद का कैसा सुन्दर चित्रण किया है। व्यवहार के क्षेत्र में एक ही मन्त्र से विश्‍व शान्ति मिल सकती है। पर विश्‍व युद्ध की भयंकर ज्वालाएँ तभी शान्त होंगी जब मानव गिद्ध की प्रवृत्ति को त्याग दें। ऐसा न होने के कारण ही साम्राज्यवादी सारे देश आज एक-दूसरे देश को हड़पने की ताक में गिद्ध बन बैठे हैं। मगर वेद की संस्कृति त्यागवाद पर आधारित है। जो सभी को पारस्परिक सद्भावनाों के साथ जीने की कला सिखाती है। अतएव सर्वे भवन्तु सुखिनः की उदार भावना तभी सार्थक होगी जब तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा पर हम आचरण करेंगे। नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय। कविराज छाजूराम शर्मा, शास्त्री

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What is a sacrifice? Many brothers make a mistake in understanding its true meaning. Someone told the householder - All the best Hari Bhaj, my brother left the family. Started chanting the name of Rama and living in the sages. It has been a long time but God has not been seen. Then life became an atmosphere of despair, gloom and inactivity. Some wise person asked - why, what is the matter?

 

 

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