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महर्षि दयानन्द और युगान्तर -1

उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन-चरित्र महापुरूष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर समय-समय पर इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते रहे हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामण्डित महापुरूष हैं।

हम देखते हैं, हमें इतिहास भी बतलाता है, समय की एक आवश्यकता होती है। उसी के अनुसार धर्म अपना स्वरूप ग्रहण करता है। हम अच्छी तरह जानते हैं, ज्ञान सदा एकरस है, वह काल के बन्धन से बाहर है, और चूंकि वेदों में मनुष्य-जाति की प्रथम तथा चिरन्तन ज्ञान-ज्योति स्थित है, इसलिए उसके परिवर्तन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती, बल्कि परिवर्तन भ्रमजन्य भी कहा जा सकता है। पर साथ-साथ, इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उच्चतम ज्ञान किसी भी भाषा में हो, वह अपौरूषेय वेद ही है।

Ved Katha Pravachan - 6 (Rashtra & Dharma) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev

परिवर्तन उसके व्यवहार-कौशलकर्म-काण्ड आदि में होता हैहुआ भी है। इसे ही हम समय की आवश्यकता कहते हैं। भाषा जिस प्रकार अर्थ-साम्य रखने पर भी स्वरूपत: बदलती गई है अथवा भिन्न देशों मेंभिन्न परिस्थितियों के कारण अपर देशों की भाषा से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होती हैइसी प्रकार धर्म भी समयानुसार जुदा-जुदा रूप ग्रहण करता गया है। भारत के लिए यह विशेष रूप से कहा जा सकता है। बुद्धशंकररामानुज आदि के धर्ममत-प्रर्वत्तन सामयिक प्रभाव को ही पुष्ट करते हैं। पुराण इसी विशेषता के सूचक हैं। पौराणिक विशेषता और मूर्ति-पूजन आदि से मालूम होता हैदेश के लोगों की रूचि अरूप से रूप की ओर ज्यादा झुकी थी। इसीलिए वैदिक अखण्ड ज्ञान-राशि को छोड़कर ऐश्वर्यगुणपूर्ण एक-एक प्रतीक लोगों ने ग्रहण किया। इस तरह देश की तरक्की नहीं हुईयह बात नहीं। पर इस तरह देश ज्ञान-भूमि से गिर गयायह बात भी है। जो भोजन शरीर को पुष्ट करता हैवही रोग का भी कारण होता है। मूर्ति-पूजन में इसी प्रकार दोषों का प्रवेश हुआ। ज्ञान जाता रहा। मस्तिष्क से दुर्बल हुई जाति औद्धत्य के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र सत्ताओें में बंटकर एक दिन शताब्दियों के लिए पराधीन हो गई। उसका वह मूर्ति-पूजनसंस्कार बढता गया। धीरे-धीरे वह ज्ञान से बिल्कुल ही रहित हो गई। शासन बदलाअंग्रेज आए। संसार की सभ्यता एक नये प्रवाह से बही। बड़े-बड़े पण्डित विश्व-साहित्यविश्व-ज्ञानविश्व-मैत्री की आवाज उठाने लगेपर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के माया-जाल में भूना रहा। इस समग्र ज्ञान-स्पर्धा के लिए समय को फिर आवश्यकता हुईऔर महर्षि दयानन्द का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञानराशि के आधार-स्तम्भ-स्वरूप अकेले बड़े-बड़े पण्डितों का सामना करते हैं। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगान्तर साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम हैयही जन संख्या में बढी हई हैं।

चरित्रस्वास्थ्यत्यागज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्द जी महाराज में प्राप्त होते हैंउनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा-सम्भूत नहींपुन: ऐसे आर्य में ऐसे ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता हैवह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकताजितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता हैमहर्षि दयानन्द सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं। महर्षि दयानन्द जी से बढकर भी मनुष्य होता हैइसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि हैयही आदर्श आज हमें देखने को मिलता है।

यहॉं से भारत के धार्मिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरू होता हैयद्यपि वह बहुत ही प्राचीन है। हमें अपने सुधार के लिए क्या-क्या करना चाहिएहमारे सामाजिक उन्नयन में कहॉं-कहॉं और क्या-क्या रूकावटें हैंहमें मुक्ति के लिए कौन-सा मार्ग ग्रहण करना चाहिएमहर्षि दयानन्द सरस्वती ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्य समाज की प्रतिष्ठा भारतीयों में एक नये जीवन की प्रतिष्ठा हैउसकी प्रगति एक दिव्य शक्ति की स्फूर्ति है। देश में महिलाओंपतितों तथा जातिपाति के भेद-भाव मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यसमाज से बढकर इन नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता हैउसका प्राय: सम्पूर्ण श्रेय आर्य समाज को है। स्वधर्म में दीक्षित करने का यहॉं इसी समाज से श्रीगणेश हुआ है। भिन्न जाति वाले बन्धुओं को उठाने तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के प्रहारों से बचने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहरजिले-जिलेकस्बे-कस्बे में इसी उदारता के कारण आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्रभाषा हिन्दी के भी स्वामी जी एक प्रवर्त्तक हैं और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। अनेक गीत खिचड़ी शैली के तैयार किये और गाए गए। शिक्षण के लिए "गुरुकुल" जैसी संस्थाएं निर्मित हो गईं। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा।

स्वामीजी के प्रचार के कुछ पहले ब्रह्मसमाज की कलकत्ता में स्थापना हुुई थी। राजा राममोहनराय द्वारा प्रवर्तित ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा वेदान्तिक बुनियाद पर महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर कर चुके थे। वहॉं इसकी आवश्यकता इसलिए हुई थी कि अंग्रेजी सभ्यता की दीप-ज्योति की ओर शिक्षित नवयुवकों का समूह पतंगों की तरह बढ रहा थापुन: शिक्षा तथा उत्कर्ष के लिए विदेश की यात्रा अनिवार्य थीपर लौटने पर वे शिक्षित युवक यहॉं ब्राह्मणों द्वारा धर्म-भ्रष्ट कहकर समाज से निकाल दिये जाते थेइसलिए वे ईसाई हो जाते थे। उन्हें देश के ही धर्म में रखने की जरूरत थी। इसी भावना पर ब्राह्मण धर्म की प्रतिष्ठा तथा प्रसार हुआ। विलायत में प्रसिद्धि प्राप्त कर लौटने वाले प्रथम भारतीय वक्ता श्रीयुत केशवचन्द्र सेन भी ब्राह्मधर्म के प्रवर्तकों में एक हैं। इन्हीं से मिलने के लिए स्वामीजी कलकत्ता गए थे। यह जितने अच्छे विद्वान अंग्रेजी के थेउतने अच्छे संस्कृत के न थे। इनसे बातचीत में स्वामीजी सहमत नहीं हो सके। कलकत्ता मेें आज ब्रह्मसमाज-मन्दिर के सामने कार्नवालिस स्ट्रीट पर विशाल आर्य समाज मन्दिर भी स्थित है।

किसी दूसरे प्रतिभाशाली पुरुष से और जो कुछ उपकार देश तथा जाति का हुआ होसबसे पहले वेदों को स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने ही हमारे सामने रक्खा। हम आर्य होंहिन्दू होंब्रह्मसमाज वाले होंयदि हमें ऋषियों की सन्तान होेने का सौभाग्य प्राप्त है और इसके लिए हम गर्व करते हैंतो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढकर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरूष ने नहीं कियाजिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित करा दिया।

देश में विभिन्न मतों का प्रचलन उसके पतन का कारण हैस्वामी दयानन्द जी की यह निर्भ्रान्त धारणा थी। उन्होंने इन मत-मतान्तरों पर सप्रमाण सबल आक्षेप भी किये हैं। उनकी इच्छा थी कि इस मतवाद के अज्ञान-पंक से देश को निकालकर वैदिक शुद्ध शिक्षा द्वारा निष्कलंक कर दें।

वाममार्ग वाले तान्त्रिकों की मन्द वृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि मद्यमांसमीनमुद्रामैथुन आदि वेद-विरुद्ध महा अधर्म कार्यों को वाममार्गियों ने श्रेष्ठ माना है। जो वाममार्गी कलाल के घर बोतल-पर बोतल शराब चढावे और रात्रि को वारांगना से दुष्कर्म करके उसी के घर सोवेवह वाममार्गियों में सर्वश्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा के समाज है। स्त्रियों के प्रति विशद कोई भी विचार उनमें नहीं। स्वामी जी देशवासियों को विशुद्ध वैदिक धर्म में दीक्षित कर आत्मज्ञान ही-सा उज्ज्वल और पवित्र कर देना चाहते थे। स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचारभक्त देश के लिए विशुद्ध भाव वाले वेदान्तिक धर्म का उपदेश दिया है।

आपने गुरु-परम्परा को भी आड़े हाथों लिया है। योगसूत्र के "स पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्‌" के अनुसार आप केवल ब्रह्म को ही गुरु स्वीकार करते हैं। रामानुज जैसे धर्माचार्य का भी मत आपको मान्य नहीं और यह बहुत-कुछ युक्तिपूर्ण भी जान पड़ता है। आपका कहना है कि लक्ष्मी-युक्त नारायण की शरण जाने का मन्त्र धनाढ्‌य और माननीयों के लिए बनाया गयायह भी एक दुकान ठहरी।

मूर्ति-पूजन के लिए आपका कथन है कि जैनियों की मूर्खता से इसका प्रचलन हुआ। तान्त्रिक तथा वैष्णवों ने भिन्न मूर्तियों तथा पूजनोपचारों से अपनी एक विशेषता प्रतिष्ठित की है। जैनी वाद्य नहीं बजाते थेये लोग शंखघंटाघड़ियाल आदि बजाने लगे। अवतार आदि पर भी स्वामीजी विश्वास नहीं करते। "न तस्य प्रतिमा अस्ति" आदि-आदि प्रमाणों से ब्रह्म का विग्रह नहीं सिद्ध होताउनका कहना है।

ब्राह्मणों की ठग विद्या के सम्बन्ध में भी स्वामीजी ने लिखा है। आज ब्राह्मणों की हठपूर्ण मूर्खता से अपरापर जातियों को क्षति पहुंच रही है। पहले पढे-लिखे होने के कारण ब्राह्मणों ने श्लोकों की रचना कर-करके अपने लिए बहुत काफी गुंजाइश कर ली थी। उसी के परिणामस्वरूप वे आज तक पुजते चले आ रहे हैं। स्वामी जी एक मन्त्र का उल्लेख करते हैं-
दैवाधीन जगत्सर्व मन्त्राधीनाश्च देवता:।
ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद्‌ब्राह्मणदैवतम्‌।।

अर्थात्‌ सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, इसलिए ब्राह्मण ही देवता है। - पं सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

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We see, history also tells us, time is a necessity. Accordingly, religion takes its form. We know very well, knowledge is always monogamous, it is out of the bondage of time, and since the first and eternal knowledge of the human race is situated in the Vedas, the need for its transformation is not proven, but the change is also called illusionary can go. But at the same time, it can also be said that the highest knowledge is in any language, it is the Apaurusiyya Vedas.

 

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